“रंग, तुम मेरे हाथों में कैसे आये, अंतस् में कैसे समाये!”

रंग तुम मेरे हाथों में कैसे आये! 
जाने किस मूल से, हरिद्रा बन कर, 
जाने किस फूल से, किंशुक बन कर, 
जाने किस पराग से, केसर बन कर, 
जाने किस कुसुमनाल से, हरसिंगार बन कर, 
जाने किस बीज से, सिंदूरी बन कर, 
जाने किस फल से, बैंगनी मकोय बन कर, 
जाने किस स्तंभ से, नील बन कर, 
जाने किस वृंत से, मलयराग बन कर, 
जाने किस पल्लव से, पर्णहरित बन कर, 
जाने किस पत्थर से, कालिमा बन कर, 
जाने किस मिट्टी से, गेरु की छाप बन कर,

नाभि में बस गई है कोई कृष्णा कस्तूरी, 
वैसे ही जैसे कमलनाल में बस जाता है जल. 
वह जो हर व्याज से, हर पात्र में धर लेता है उसका ही रंग, 
सुनो कि तुम बनना जल मृणाल का ही, 
यद्यपि कि हो कस्तूरी ही किसी नाभि की, 
ताकि जब कहे कोई विस्मित मन, 
रंग तुम मेरे अंतस् में कैसे समाये! 
कह सको तुम, सस्मित- 
लगाओगे रंग कहीं भी, किसे भी, जब कभी भी, 
वहाँ एक हथेली मेरी होगी, एक चेहरा तुम्हारा ही.

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होली की मंगलकामना सहित, 
शेर की पुनरावृत्ति- 
किन्हीं हथेलियों में लगें जो रंग कहीं भी,
समझना दुआ मेरी उसी में कुबूल हो गई.

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