“पात्रत्वाद् भोजनमाप्नोति”

भोजन की अपनी पात्रता है, 
पकाने से परोसने व फिर खाने तक. 

पात्र तरह-तरह के हैं- 
पत्थर और मिट्टी के, 
लकड़ी और पत्तों के, 
धातु और पोलीमर (प्लास्टिक के विविध रूप) के, 
शीशे और चीनी मिट्टी के. 

इनमें भी भीतर और भेद प्रभेद हैं- 
विशेषतया धातुओं में लोहा, ताँबा, काँसा, पीतल, सोना, चाँदी, स्टील, एल्यूमिनियम, एलॉय आदि तमाम हैं, 
जिसकी जैसी क्षमता, लेकर आता. 
संस्कृत के “पात्रत्वाद् धनमाप्नोति” नहीं, 
अपितु “धनाद् पात्रत्वामाप्नोति” की तरह. 

सबके अपने गुण हैं, 
और सबमें कुछ कमियाँ भी. 
पत्ते आग पर नहीं चढ़ सकते, 
मिट्टी बहुत दिनों तक नहीं टिक सकती, 
पॉलिमर हल्के हैं, पर घातक हो रहते हैं, 
काँसा-पीतल-ताँबा में खट्टी चीजें रखना ठीक नहीं. 

तो हर जरूरत के लिए अलग पात्रता चाहिए. 
कहीं प्लास्टिक के वॉटर टैंक, 
कहीं लकड़ी के चकले-बेलन व कठौत, 
कहीं ताँबे या मिट्टी का जलपात्र, 
कहीं स्टील की थाली, प्याली, चम्मच, 
तो कभी शीशे और चीनी मिट्टी के चायपात्र. 

अंग्रेजी का “पॉट” शब्द संस्कृत के “पात्र” शब्द से ही निकला है। 
संस्कृत में, उसमें भी विशेष रूप से धर्म में “पंचपात्र” की मान्यता रही है- 
आज पंचपात्र का तात्पर्य मात्र एक पात्र रह गया है। 
गिलास के आकार का चौड़े मुँह का एक बरतन, जो पूजा में जल रखने के काम आता है। 
अधिक से अधिक इसमें चम्मच के आकार की आचमनी को स्रुवा की तरह रख दिया जाता है। 
परंतु कभी वे भी पाँच रहे होंगे, 
जिसमें इनके साथ कलश, स्थाली(थाली), पात्रिका (कटोरी) तो अवश्य ही रही होगी. 
श्राद्ध में पंचपात्र बहुत कुछ इसी रूप में देय होते हैं। 

जितने भी तरह के पात्र हैं, 
सबका अपना इतिहास है। 
चम्मच सबसे अनूठे हैं. आचमनी या स्रुवा की तरह के ये पात्र न भोजन पकाने के लिए हैं, न रखने के लिए, 
अपितु ये बस खाने की सुविधा के लिए हैं. 
खाने के लिए सबसे पहले चम्मच का प्रयोग कहाँ हुआ, 
कहना मुश्किल है. 
मिस्र, ग्रीस व चीन तीनों के अपने-अपने दावे हैं. 
यह अवश्य है कि ये बड़ों से पहले बच्चों के लिए इजाद किए गए होंगे. चीन उन देशों में है, जिसने चम्मच के साथ विकल्प में चॉपस्टिक की भी इजाद कीं, जो अन्यत्र कहीं दुर्लभ हैं। 

शीशे और चीनी मिट्टी के बरतन अपनी अलग पहचान रखते रहे हैं। शीशा भी रेत का ही बना उत्पाद है। चीनी मिट्टी की खोज चीन में हुई, जिसमें फेल्सपार क्वार्ट्ज युक्त सफेद मिट्टी के बरतन पर शीशे की परत चढ़ाई जाती है। राजस्थान की ब्लू पॉटरी भी उसी प्रारूप की एक विधा है. 

पात्र बहुत प्रतीक भी बने हैं। 
घट-घट में परमात्मा की व्यापकता रही हो, 
या खर्परधारी कपालहस्ता कराली काली की. 
बेलन का परिहास हो या चमचे की व्यंग्योक्ति. 
थाली के खोने पर घड़े में तलाशी की कहावत हो, 
या अधजल गगरी छलकत जाए की लोकोक्ति. 

संस्कृत का श्लोकांश “पात्रत्वाद् धनमाप्नोति” कितना सही है, पता नहीं, 
परंतु “पात्रत्वाद् भोजनमाप्नोति” सही है, 
सदा ही इस संसार में. 
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रसोई – 2019 के 14 मार्ग से राजस्थान हाट में शुभारंभ के क्रम में, 
स्वागत सहित, 
रसास्वादन के लिए भी, कुकरी प्रतियोगिताओं में सहभागिता के लिए भी. 

चित्रोपयोग के लिए श्री विजय बल्लाणी, जैसलमेर के आभार सहित भी

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