जाने किसकी पंक्ति है-
फ़ीकी चुनरी देह की, फ़ीका मन बंधेज.
जिसने रंगा रूह को, वो सच्चा “रंगरेज़.”
पंक्ति होली के परिप्रेक्ष्य में थी,
पर बात दूर की कह जाती है।
यह जीवन देह, मन, हृदय, आत्मा के जिन चार आयामों से निर्मित है,
चारों परस्पर संबद्ध हैं.
सबकी अपनी वृत्तियाँ हैं और
सब वृत्तियों का अपना प्रभाव क्षेत्र है।
यह जो हमारा मनोविज्ञान है,
उस पर हमारे जीवविज्ञान, रसायन विज्ञान, भौतिक विज्ञान, समाज विज्ञान का प्रभाव पड़ता ही रहता है,
समय-समय पर, असर बदल-बदल कर.
कब रूहानी हो जाएँ, कब रूमानी,
कब भावुक, कब भौतिक,
कुछ पहले से पता नहीं.
सब वृत्तियों का अपना प्रभाव क्षेत्र तो है,
पर वे दूसरी वृत्तियों के क्षेत्राधिकार में अतिक्रमण करती ही रहती हैं,
गाहे-बगाहे, जाने-अनजाने.
काम बहुधा प्रेम के बाहर भी प्रभाव जमा कर चला ही आता है,
प्रेम धर्म के विराग में भी अपने राग निकाल लेता है।
विज्ञान कहता है, हृदय के चार भाग हैं.
दो अलिंद, दो निलय,
दो नीचे, दो ऊपर.
एक प्रतीक के रूप में ये भी चार आयाम हैं,
प्रेम, नेम, काम व धर्म के.
इनके बीच कपाट कभी इस तरह बंद हो रहते हैं कि
प्रेम कभी काम से ऊपर ही नहीं उठ पाता,
वह बस नित का नेम है, दिनचर्या बुझी-बुझी सी
और
इनके गवाक्ष कभी इस तरह खुल जाते हैं कि
प्रेम धर्म बन जाता है,
पूजा बनकर निभता है, प्रार्थना बनकर गूँजता है।
दर्शन की पदावली में कहें,
तो कुछ के प्रेय के वातायन हेय तक रहते हैं,
कुछ के सिंहद्वार श्रेय तक पहुँच जाते हैं।
प्रेम जितना हेय है, अघोरी का पंचमकार है।
प्रेम जितना श्रेय है, नाथ का पंचमकार है,
देहयुक्त होकर भी, बहुत कुछ देहमुक्त ही.
वह जो पूर्वोक्त पंक्ति है-
फ़ीकी चुनरी देह की, फ़ीका मन बंधेज.
जिसने रंगा रूह को, वो सच्चा “रंगरेज़.”
वह स्त्री मन की है, उसका ही बिंबविधान लिए.
जाने इसमें किसी पुरुष ने किसी स्त्री को सलाह दी है,
या किसी प्रौढ़ा स्त्री ने किसी नवोढा स्त्री को,
या फिर स्त्री ने ही आत्मगत भाव पुरुष से व्यक्त किया है,
या फिर अपने ही द्वंद्व में उलझी स्त्री ने स्वयं को ही समझाया है.
सच कहूँ, तो अंतिम संभावना अंतिम की ही है।
पर स्त्री का पुरुष देह से ऊपर उठना सरल है,
स्वयं की ही देह से ऊपर उठना कठिन है।
वह अर्थ के संधान में अर्थवत्ता बहुत भूलती रही है,
कमनीयता की चाह में ही कामिनी पद से उन्नयन कर पाने में बहुधा विफल रही है।
सुनो स्त्री,
सुंदरता सदा हीरा, सोना, माणिक ही नहीं होती,
वह फूल, तितली, ओस, लहर भी होती है।
बहुत नाजुक, बहुत कोमल,
जानो स्त्री,
कि इस सुंदरता की कीमत कोमलता में चुकाती रही हो,
वही तुम्हें अबला बनाता रहा है,
जिसकी हीनता की ग्रंथि गाँठ बाँध कर सबला के छद्म उपक्रमों में फँसती रही हो.
देखो,
सुंदर हो, शृंगार सोहेगा,
सोने पर सुहागा सा ही बनकर.
कमनीयता भोगेगी बन कर विलास,
रास में महकेगी, अलग सुगंध लेकर.
लेकिन इनसे अलग भी प्रेम को रहने देना,
उसे सहज ही बहने देना,
बहती है, सरिता जैसे अपने तट से,
बिना घाट, बिना बाँध, वीचिमय.
देना जब स्वयं को, देना स्वयं ही बनाकर,
कि भौतिकता भर कर दोगी अपने चषक में,
बस भौतिकता ही पाओगी, मूल्य में,
कि कितना विद्रूप लगता है,
अपने ही पात्र का उच्छिष्ट होकर,
छोड़ दिया जाना, म्लान भाव से,
बिना अनुग्रह भाव के,
कि देह भी वही म्लान चषक है,
बिना रूह के प्रतिदान के…!
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Painting
Timothy Bootan.