“गोलगप्पा : अनेक नाम पानीपूरी के, अज्ञात इतिहास गुपचुप का”

व्यंजनों में कुछ व्यंजन अपने अनूठेपन से चकित करते हैं। 
वैसे ही कुछ अद्भुत संरचना वाले व्यंजनों में गोलगप्पा है। 
देखने में छोटी, गोल, फूली, कुरकुरी रचना, 
मसालेदार उबले आलू व खट्टे-मीठे पानी से भरी. 

गोलगप्पा अनेकनाम है, मुख्यतः पंचनाम- 
गोलगप्पा, फुचका, गुपचुप, पताशा, पानी-पूरी. 
लगभग सारे नाम देशज हैं. 
सब नाम ध्वन्यात्मक अभिव्यंजना रखते हैं. 
अधिकांश पुल्लिंग, सिवाय पानी पूरी के. 
पताशा कहीं पताशी भी हो जाता है। 
बताशे से नामसाम्य को देखते हुए इसे पानी पताशा या पताशी भी कह देते हैं। 
गोल चीज को गप्प से मुँह रख लेने से ही शब्द बना गोलगप्पा. 
पानी-पूरी का शाब्दिक अर्थ है “पानी से भरी पूड़ी” 
या फिर बस पानी से पूरित ही. 
फुचका भी कहीं पिचका कह दिया जाता है, 
पिचकारी से ध्वनि मिलती होगी। 
अंग्रेजीदां लोगों को समझाने के लिए अंग्रेजी के शब्दकोश में गोलगप्पे का अर्थ प्रायः ‘स्पाइसी वॉटर कंटेन्ड क्रिस्प स्फेयर इंडियन ब्रेड’ लिख दिया जाता है। 

गोलगप्पे के क्षेत्र विशेष के अनुसार अपने और नाम भी हैं, 
जो उसके चहेतों ने अपनी सुविधा व कल्पना के अनुरूप दिए हैं. 
झारखंड उड़ीसा, छत्तीसगढ़ और बिहार में गोलगप्पे को गुपचुप कहते हैं. महाराष्ट्र में इसका नाम पानीपूरी बताशा है, तो गुजरात में केवल पानीपूरी. बंगाल और बांग्लादेश में इसको फुचका कहते हैं. 
राजस्थान और उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों में इसे पताशी नाम से जाना जाता है. कुछ जगहों पर चपातियों को फुल्का कहा जाता है, इस साम्य के आधार पर पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल के कुछ हिस्सों में गोलगप्पों को भी फुल्की कहा जाता है. पर इस नाम से इसे और जगह कम लोग ही जानते हैं. मध्य प्रदेश के होशंगाबाद में गोलगप्पों को टिक्की कहा जाता है, तो अलीगढ़ में गोलगप्पों को पड़ाका भी कहते हैं, जो पटाखे का भदेसी रूपांतर है। 
गुजरात के कुछ हिस्सों में इसे पकौड़ी भी कहा जाता है, जहाँ इसमें प्रायः आलू प्याज के साथ सेव मिलाया जाता है। 

भारत में स्वरों की तरह व्यंजनों की भी अपनी ऋतुचर्या है, 
उनके भी बहुत कुछ काल तय हैं- 
गोलगप्पा मुख्यतः सायंकाल का भोज्य है, 
वैसे ही जैसे जलेबी प्रात:काल की. 

गोलगप्पा त्रिआयामी है, 
जिसका एक आयाम वह स्वयं है, 
दूसरा आयाम उसमें भरा जाने वाला पानी,
और तीसरा आयाम उसमें भरा जाने वाला भर्ता, चटनी, आलू, मटर, दही, सेव, प्याज, मिर्च आदि अनादि. 
पानी भी “पानी रे पानी, तेरा रंग कैसा” की तरह है। 
कभी आमरस, कभी पुदीना, कभी धनिया, कभी इमली, 
कहीं मिर्च, हींग, अदरख, लहसुन सबकी तासीर. 
ये सबका पचमेल भी हो सकता है, तो अलग-अलग फ्लेवर वाला भी. 
इसी के आधार पर कोई खट्टी पानीपूरी है, तो कोई मीठी पानीपूरी, और तीखी पानीपूरी, छप्पन छुरी सी बेधती हुई. जयपुर व लखनऊ में पांच अलग-अलग टेस्ट के पानी के साथ मिलने वाले पाँच स्वाद के गोलगप्पे भी काफी प्रसिद्ध हैं. 
भरवाँ सामग्री भी दर्जन भर से ज्यादा तरीकों से बनायी जाती है। गोलगप्पे में अक्सर आलू, प्याज मिर्ची, मटर से बने हुए चोखे को भरा जाता है, परंतु इसको और जायकेदार बनाने के लिए इसमें अलग से खट्टी चटनी, मीठी चटनी, मीठा गुलाब पानी और दही के साथ भर कर भी बनाया जाता है। 
स्वयं गोलगप्पा भी आटे व सूजी दो तरह से बनाया जा सकता है। 
जहाँ दोनों मिलते हैं, अक्सर आकार बदल दिये जाते हैं। 
एक गोल रहता है, तो दूजा जरा लंबवत्. 
जो लंबवत् हैं, उन्हें रखना सजाना जरा सरल है. 

गोलगप्पा लोकप्रिय व प्रसिद्ध अल्पाहार है। 
परंतु घर में बनने वाला नहीं, 
बाहर खाया जाने वाला. 
बाहर भी होटलों, ढाबों में नहीं, 
वरन् अमूमन ठेले के सामने खड़े होकर खाया जाने वाला. 
यह सही मायने में स्ट्रीट फूड है, पूरी तरह. 
गोलगप्पे ठेले तक रहे, सो सर्वहारा की पहुँच में रहे. 
तीन दशक पहले एक रुपये के पाँच गोलगप्पे खाने वाले 
आज भी दस रुपये के पाँच गोलगप्पे सहज खा सकते हैं। 
वैसे भारत भी अनूठा है, जो मटके के पानी में डूबे गोलगप्पे खाकर बोतलबंद मिनरल वॉटर माँगता है. 
यह बताता है कि पानीपूरी इतनी प्रिय है कि वहाँ हाइजीन का अलग विचार नहीं. 

गोलगप्पा अल्पाहार भी है और पूर्णाहार के पहले एपेटाइजर भी. 
कभी इसे देखकर हिरण्यगर्भ ब्रह्म की विवर्तवादी अभिव्यंजना स्मृत हो आती है
वह जितना रिक्त है, उतना ही पूरित भी, 
कुछ इसी तरह- 
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते। 
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥ 

गोलगप्पे को उसकी पूर्णता के साथ गप्प करना है, 
जिसमें आप गुपचुप होते हैं, वह फुचका बन जाता है। 
भिक्षु की तरह भिक्षापात्रवत् दोने उठाए जन 
रसास्वादन के समय वानरी मुखमुद्रा बनाकर कुछ वैसे ही “रसो वै स:” हो रहते हैं, जैसे कबीर की यह उक्ति चरितार्थ कर रहे हों- 
बूँद समाना समुंद में, सो कत हेरी जाए. 

गोलगप्पा कहाँ जन्मा, 
कोई नहीं जानता. 
कोई इसका जन्मस्थल बिहार का मगध कहता है, तो कोई उत्तर प्रदेश का बनारस. 
किसी के अनुसार दिल्ली इसका मूल है, 
तो किसी के अनुसार बंगाल में कोलकाता. 
नाम को लेखन में दर्ज होने का अवसर तो बहुत बाद में मिला. 
शोधार्थियों के अनुसार गोलगप्पा शब्द को पहली बार 1951 में लिखित रूप में दर्ज किया गया, तो पानीपूरी शब्द 1955 में. 
परंतु इतिहास खंगालने वाले ग्रीक व चीनी यायावरों तक के विवरणों में इसके होने के दावे करते हैं, 
ग्रीक मेगस्थनीज से लेकर फाहियान व ह्वेनसांग जैसे चीनी बौद्ध भिक्षुओं तक. 
कुछ किंवदंतियाँ भी बिखरी पड़ी हैं। 
मुगल काल से महाभारत काल तक की. 

मुगलई कहानी अनुसार बात शाहजहाँ के जमाने की है। 
तब दिल्ली शहर के लोगों तक नहर का पानी पहुँच गया. 
परंतु एक बार जरा ठहरे रहने के कारण दूषित हुए पानी को पीने से जनसामान्य गंभीर उदर संक्रमण से ग्रस्त हो गया. 
तब शाहजहाँ की बेटी रोशनआरा ने शाही हकीम को बुलाकर इन बीमार लोगों के लिए कोई नुस्ख़ा तैयार करने को कहा. हकीम ने नुस्खा तैयार कर दिया, 
जो पाचक रसों से युक्त होने से जायकेदार भी था. 
रोशनआरा ने इसे आम जन में वितरण का बीड़ा उठाया। 
परंतु लोगों को पिलाने के लिए मात्रा कैसे तय हो, 
यह सवाल था, 
यह भी इसे कैसे लोकप्रिय बनाया जाए कि 
सब सहज ही पीने लगें. 
इस नुस्खे को एक नये तरीके से देने के लिए उसने या किसी अनुचरी ने उसे आटे की छोटी कुरकुरी पूरियों में भरकर देने का प्रयोग किया, 
जिससे वह नुस्खे से अनूठे व्यंजन में तब्दील हो गया. 
और इस तरह पानीपूरी के रूप में गोलगप्पे का जन्म हुआ। 
जब इसे लोगों को पिलाया गया, 
तो वे न केवल चंगे हो गए, वरन् इसके मजेदार जायके के मुरीद भी हो गए. 

इसके लेकर एक और कहानी गढ़ी गई है कि 
जब द्रौपदी पहली बार ससुराल आई थी, 
तब सास कुंती ने सायंकाल के लिए द्रौपदी को कुछ ऐसा अल्पाहार तैयार करने को कहा, 
जिससे उस समय उसके पाँचों पुत्रों का पेट भी भर जाए 
और फिर रात को भोजन की भूख भी लग आये. 
तब द्रौपदी ने अपनी बुद्धि एवं कला का प्रयोग कर पानीपूरी तैयार की, 
जिसमें सरल ही पेट भरने व स्वयं ही पाचक बन भूख बढ़ाने का भी गुण था। 
कहते हैं, कुंती को इसका स्वाद या द्रौपदी का चातुर्य इतना प्रभावित किया कि उन्होंने अपनी बहू द्रौपदी को अमरता का वरदान भी दिया था। आगे यह पांचाली पानीपूरी सर्वत्र लोकप्रिय हो गई. 

दोनों ही कथाएँ बाद की कल्पना हैं, 
परंतु रुचिर हैं। 

गोलगप्पे खाना जितना स्वाद भरा है, 
उतना ही संवाद भरा भी है। 
खाने से पहले फ्लेवर पूछने से लेकर 
खाने के दौरान “भैया, इसमें मिर्ची थोड़ा और डालना!” कहने तक 
और खा चुकने के बाद भी “भैया, पपड़ी दे देना” कह कर अनफूले पिचके गोलगप्पे में दही व मीठी चटनी डालकर सूखा गोलगप्पा खाने तक भी. 
लोग अक्सर उपसंहार के रूप में “पपड़ी खिला दो” कहना कत्तई नहीं भूलते. 
यह अतृप्त मन को रोकने की कवायद भी है और 
खरीद के साथ घलुए लेने की प्रवृत्ति भी और मूल से ज्यादा सूद के प्यारे होने की आदत भी. 

तो छोटे से गोलगप्पे में लंबी सी कहानी छिपी है, 
झूठी-सच्ची सी, 
शहजादी रोशनआरा की कोशिश की और शाही हकीम के नुस्खे की,
कुंती की चुनौती की और द्रौपदी के प्रयोग की, 
मेगास्थनीज के उल्लेख की, फाहियान के उद्धरण की और ह्वेनसांग के विवरण की. 
और हाल में “क्वीन” मूवी के जरिये परदेश तक पहुँची इस स्वदेशी डिश की भी. 

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