“पलाश : किंशुक के, फूल, टेसू के रंग व ढाक के पात वाला पेड़”

होली जब आती है, 
रंगों की बात छेड़ती है, 
तब टेसू के फूलों के रंग की बात छिड़ ही जाती है। 
होली जितनी रंग की है, उतनी ही आग की होलिका दहन के रूप में, 
और वहाँ जहाँ रंग व आग संध्या बन कर मिलते हैं, भावरूप में, 
वहाँ राग जन्म लेता है, अनुराग भरा. 
पलाश इस रंग व आग की संधिवेला का राग भी है।

पलाश कभी बहुत सुलभ थे, 
इतने कि सबके पत्तल-दोने, समिधा, रंग का आधार बन सकें, 
परंतु जब से बर्बर लकड़हारे मानव ने माली मानव पर विजय हासिल की, 
ये पेड़ दुर्लभ ही हो गए, 
विशेषतया जहाँ गाँव-शहर हों, उनकी आबादी हो.

पर अब भी जहाँ वन हैं, विजन है, 
पलाश हैं ही, जो वसंत से ग्रीष्म तक दहक कर फूलते हैं. 
कुछ संधान करते हैं इसका. 
पलाश के तीन और नाम बहुलता से मिल जाते हैं, हिंदी में- 
किंशुक, ढाक, टेसू. 
कहीं केसू, परसा, छूला, छनूरा, खाखरा आदि भी मिल जाते हैं, 
लोकभाषा में, कुछ और भी उच्चारण-भेद के साथ. 
केसू, परसा तो टेसू व पलाश के ही उच्चारण-भेद हैं, 
परंतु छूला, खाखरा बिल्कुल स्वतंत्र नाम हैं, 
हाडौती, मालवा में यह नाम विशेष प्रचलित है। 
इतने लोकनाम शायद किसी और पेड़ के न होंगे, 
एक ही भाषा में. 
“नाम में क्या रखा है” कहने वाली अंग्रेजी भाषा में इसे ब्यूटिया मोनोस्पर्मा कहा गया है। 
इसका ब्यूटिया नाम अठारहवीं सदी के वर्गिकी के एक संरक्षक ब्यूट के अर्ल जोहन की स्मृति में रखा गया था। मोनोस्पर्मा ग्रीक भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है- एक बीज वाला।

नाम पर पुनः लौटते हैं. 
पलाश बहुनाम है, मानक हिंदी में ही चार पर्याय बहुतायत से मिल जाते हैं। 
जहाँ तक पत्ते हैं, उनका संदर्भ है, ढाक का उल्लेख है, 
ढाक के तीन पात बना. 
जहाँ तक फूल हैं, उनका संदर्भ है, टेसू का उल्लेख है, 
टेसू के फूल का रंग लिए. 
पलाश व किंशुक दोनों संस्कृत में हैं. 
पलाश में निहित किंशुक फूल की रूपाकृति की व्यंजना है, 
वह जो शुक की चोंच की तरह है, 
जरा नहीं, पूरी तरह ही शायद. 
तो कहने वाले ने द्विविधा में किंशुक कह दिया. 
स्वयं पलाश का क्या अर्थ है? 
किंशुक के विपरीत पलाश नाम बहुत जुगुप्सा या भयजनक अर्थ रखता है। 
पल का अर्थ है- मांस, आश का अर्थ है- भक्षी. 
इस मांसभक्षी अर्थ में यह प्रेत, पिशाच या राक्षस का पर्याय है। 
इस नामकरण के पीछे भी एक लोककथा है, 
परंतु वह अन्यत्र कहीं.

खिले हुए लाल फूलों से लदे हुए पलाश की उपमा संस्कृत लेखकों ने रक्तरंजित युद्धभूमि से भी दी है और आग से भी. 
पलाश की यह पुष्पस्तवकता अग्निमयता के रूप में बहुत बार अभिव्यक्ति पायी है। कारण यह है कि पलाश के फूल की पंखुरियाँ ऊपर की ओर ऐसे उठी होती हैं, जैसे आग की लौ या लपट हो. इसके अर्धचंद्राकार लाल फूलों के लौ की तरह होने व गुच्छे में लपट की तपह लगने के कारण इसे “जंगल की आग” भी कहा जाता है। 
लाल रंग और ग्रीष्मकालिकता दोनों मिलकर इसे इस रूप में और पुष्ट कर देते हैं। 
यह अग्निरूपकता इतनी लोकप्रिय हुई कि उसे अग्नि का ही अवतार मान लिया गया. 
एक पुराणकथा के अनुसार शिव और पार्वती का एकांत भंग करने के कारण अग्निदेव को शापग्रस्त होकर पृथ्वी पर पलाश के वृक्ष में जन्म लेना पड़ा।

पलाश के फूल शुकचंचुवत् हैं, अग्निशिखामय हैं, 
परंतु वे निर्गंध भी हैं. 
यह भी उसे उपयुक्त रूपक बनाता है, 
सोने में सुगंध न होने सा, मयूर में स्वर न होने सा.

पलाश के फूल प्रायः लाल मिलते हैं, कभी नारंगी भी और बहुत दुर्लभ रूप में कहीं पीले भी. लाल रंग ही प्रसिद्धि पाये है। 
दो और वनस्पतियों को पलाश का नाम मिला है, 
जिनमें एक वृक्ष है, गदा पलाश, जिसे वन विभाग ने प्रायः गधा पलाश नाम दे रखा है। बड़े वृक्षों का यह सुंदरतम फूल है। इसे विज्ञान में “एरिथ्रिना इंडिका” कहते हैं। 
दूसरी एक लता है, नाम है लता पलाश, 
जो प्रायः वैसे ही लाल फूल देती है, कभी सफेद भी. 
सफेद फूलो वाली लता पलाश का वैज्ञानिक नाम “ब्यूटिया पार्वीफ्लोरा” है, जबकि लाल फूलों वाली को ” ब्यूटिया सुपरबा” कहा जाता है।
परंतु ये दोनों ही पलाश नहीं, उनकी जाति नहीं.

पलाश के फूल प्रसिद्ध हैं, अपने कारण से, 
वे आग से हैं, वे रंग के हैं. 
जब इनके फूलों को सुखा कर, उबाल कर रंग बनाया जाता है, 
तब वह जरा केसरिया बाना लिए दिखता है। 
परंतु पलाश के पत्ते प्रसिद्ध हैं, दूसरे कारण से, 
वे सदा तीन हैं, यह तो लोकोक्ति है। 
वे जिस रूप में लोकप्रिय हैं, 
वह उनका पत्तल-दोनों का रूप है। 
स्वयं लेखक ने बचपन में पहला परिचय इसी से पाया था, 
फूल तो बड़े होने पर दिखे.

संस्कृत साहित्य में पलाश का बहुत उल्लेख है, 
निर्गंधा इव किंशुका: की उक्ति के रूप में भी और 
महाभारत में लाक्षागृह की आग के विदुरसंकेत के रूप में भी. 
माघ का यह यमकमय उल्लेख बहुत प्रसिद्ध है- 
नवपलाशपलाशवनं पुरः स्फुटपरागपरागतपङ्कजम् । मृदुलतान्तलतान्तमलोकयत्स सुरभिं सुरभिं सुमनोभरैः ।। 
-शिशुपालवधम्/षष्ठः सर्गः ।। 6.2 ।।

संस्कृति में पलाश के पेड को पूर्वा फल्गुनी नक्षत्र का प्रतीक भी माना जाता है और अनेक लोगों का विश्वास है कि पूर्वा फल्गुनी नक्षत्र में जन्म लेने वाले लोगों को पलाश वृक्ष की पूजा करने से सुख समृद्धि प्राप्त होती है। पश्चिमी बंगाल में इसे वसंत और होली का प्रतीक माना गया है। इतिहास प्रसिद्ध पलासी के युद्ध वाले पलासी का नाम पलाश के कारण पड़ा है, क्योंकि कभी वहाँ पलाश बहुत होते थे. यह वैसे ही है, जैसे जाल के पेड़ अधिक होने से जालियाँवाला बाग व जालौर नाम पड़े. कुछ कहते हैं, पलाश स्वयं युद्धभूमि का प्रतीक है, इसलिए इस फूल का पलासी नाम इतिहास प्रसिद्ध पलासी के युद्ध के कारण पड़ा है। परंतु यह दूर की कौड़ी है।

पलाश उत्तर प्रदेश का राज्य पुष्प भी है। 
आंध्र प्रदेश व तेलंगाना क्षेत्र में शिवरात्रि के दिन शिव की पूजा में पलाश के फूल अर्पित करने की परंपरा है। बिल्व पत्र भी सदा तीन के समूह में रहने के कारण त्र्यंबक त्रिपुरारि शिव को प्रिय मान अर्पित होता रहा है। यह तीन पात वाला ढाक उसी का स्थानापन्न है।

पलाश शृंगार से अधिक वैराग का प्रतीक रहा है। 
काष्ठ रूप में वह संन्यासी व यज्ञोपवीत संस्कार के लिए तत्पर ब्रह्मचारी का दंड भी है और यज्ञ की समिधा भी. 
इसे केरल में चमटा नाम से भी पुकारा जाता है। चमटा संस्कृत के समिधा शब्द का मलयालम तद्भव रूप है और इसके अनुसार अग्निहोत्र में पलाश की समिधा का प्रयोग होता है। शायद इसी लिए आयुर्वेद ने इसे ब्रह्मवृक्ष भी कहा है।

पलाश कहीं देह का भी प्रतीक है। 
मणिपुर में जब मेइति समाज का कोई व्यक्ति दिवंगत हो जाता है और किसी कारण से उसकी मृत देह प्राप्त नहीं होती तब उस व्यक्ति के स्थान पर इस वृक्ष की एक शाखा का अंतिम संस्कार कर दिया जाता है।

संस्कृत साहित्य में इसके लाल रंग व सुंदर रूप का वर्णन अग्निमयता व शृंगारिकता दोनों के साथ प्रचुरता से हुआ है। उसकी यह हुताशनता भी शृंगार रस को तिरोहित नहीं कर पाती है। कालिदास कहीं लिखते हैं – “वसंतकाल में पवन के झोंकों से हिलती हुई पलाश की शाखाएँ वन की ज्वाला के समान लग रहीं थीं और इनसे ढकी हुई धरती ऐसी लग रही थी, मानो लाल साड़ी में सजी हुई कोई नववधू हो।”

पुष्पित पलाश वृक्ष के संबंध में संस्कृत साहित भारत की विभिन्न भाषाओं और लोक साहित्य में इस पुष्प और वृक्ष के मोहक वर्णन मिलते हैं। 
आधुनिक काल में भी अनेक कृतियाँ जैसे रवीन्द्रनाथ त्यागी का व्यंग्य संग्रह- ‘पूरब खिले पलाश’, मृदुला बाजपेयी का उपन्यास ‘जाने कितने रंग पलाश के’, नरेन्द्र शर्मा की ‘पलाश वन’, मेहरून्निसा परवेज का उपन्यास ‘अकेला पलाश’, नचिकेता का गीत संग्रह ‘सोये पलाश दहकेंगे’, देवेन्द्र शर्मा इंद्र का दोहा संग्रह ‘आँखों खिले पलाश’ आदि टेसू या पलाश की प्रकृति को ही केन्द्र में रखकर लिखी गई हैं।

——————–
कुछ विवरण अर्बुदा ओहरी, जोधपुर के लेख से साभार

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *