प्रकृति ने बहुविध रंग दिए हैं।
संस्कृति ने उसे बहुगुणित करना सीखा.
संस्कृति ने जिससे सीखा, वह संभवतः स्त्री होगी.
स्त्री ने जहाँ से सीखा होगा, संभवतः फूल होंगे या फिर फूल बनना चाहता मन होगा,
या फिर फूलों पर इतराता तितली बना जीवन होगा।
यह संसार स्वयं शब्दों से कम, छवियों से अधिक बोलता है।
छवियों में भी कभी रेखाएँ कम बोलती हैं, रंग अधिक बोलते हैं।
रंग प्रकृति की आकृति कम, उसके सार अधिक जो हैं,
वह भी अधिकांशतः ही मधुमय,
वे आलोक-धन्वा नक्षत्रों में बसी आशा, स्मित, उल्लास जो हैं.
रंग जरा उल्लसित करते हैं, तो बहुत हुलसित भी करते हैं।
वे कभी बहुत मर्यादित हो सकते हैं,
दिवाली की कंदीलों, रंगोलियों व सजावटों में,
वे बहुत उद्दाम व उद्धत हो सकते हैं,
होली के रंगों में, गुलालों में, कुछ ठिठोली से आगे बढ़ जाते हुड़दंगों में,
या फिर मार्यादा व उल्लास के मिश्रण में तीज में, चौथ में, ऐसे ही स्त्रीजनोचित पर्वों में, रखियों में, गणगौर में,….!
प्रकृति के पास ऋतुओं केे रंग हैं।
संस्कृति के पास पर्वों केे रंग हैं।
व्याकरण ने इसीलिए दोनों को स्त्रीलिंग में रखा.
भाषीय रूप से हिंदी बड़ी रुचिर है।
इसमें जो कुछ वक्तव्य होंगे, या तो स्त्रीलिंग होंगे या पुल्लिंग होंगे,
कुछ भी नपुंसकलिंग नहीं, कुछ भी उभयलिंग नहीं.
कई बार सोचता हूँ,
स्त्री रंगों की अधिष्ठात्री सी रही,
रंग स्त्री के पर्याय से रहे,
परंतु रंग कभी स्त्रीलिंग क्यों न हुए?
काला, पीला, नीला, लाल, हरा, सफेद, बैंगनी, गुलाबी सब अक्सर पुल्लिंग ही तो दिखते हैं। अबीर, गुलाल, कुमकुम, सिंदूर, आलता(अलक्तक), महावर सभी तो पुल्लिंग हैं।
मेंहदी, हल्दी, रोली जरा अपवाद होंगे, पर उन्हें अभी पिसना है,
अभी घुलना है, अभी तरलित होना है, इसलिए वे स्त्रीलिंग हैं.
क्या इसमें भी कोई कामनामयी कल्पना रही होगी,
या कि कमनीय हुई कामना रही होगी,
या फिर तरलित कर ही देखने वाली धारणा रही होगी.
कोई कह सकता है कि
आवरण व आभरण में रहे रंग पुरुषप्रभुत्ववादी व्याकरण से आए होंगे।
मान लिया गया होगा कि पुरुष से ही स्त्री के जीवन में राग है, रंग है।
यह अनुमान बहुत गलत भी न होगा कि
संस्कृति ने कभी के युग में पुरुष के बिना उसे सौभाग्यवती न कहा.
रंग स्त्री का वरण हैं,
पर रंगमयी स्त्री तो पुरुष का ही वरण रही होगी.
वे पुरुष के परुष को जरा कोमल कर जाते हैं।
रंग हमारे आभामंडल भी हैं और हमारा वरण भी.
हमीं वरण करते हैं, मनोनुकूल रंग का, इसलिए वर्ण कह दिए गए होंगे।
कोई रंग बुरा-भला नहीं होता, वे हमारी अनुरूपता बताते हैं, हमारे अवसरों का औचित्य भी दिखाते हैं और इसी व्याज से हमारी प्रकृति व संस्कृति भी.
भाव बदलते हैं, रंग बदल जाएँगे,
उलटा भी, रंग बदलेंगे, भाव बदल जाएँगे.
वे बदलेंगे और बदलना भी चाहिए कि
दिन व रात के रंग अलग होते हैं।
विज्ञान तीन ही प्राथमिक रंग मानता है-
लाल, नीला, हरा.
बाकी सब उसके रूपांतर हैं,
श्याम से शुक्ल के बीच.
कभी “मौसम मन के, रंग ऋतुओं के” सोचते मन ने कहा था,
जो भी है, सब तीन रंगों में समेटा जा सकता है।
यह जो वर्षा है, हरित है, सब हरित कर देती है, यह सहजदृश्य है।
जो ग्रीष्म है, वह सब दग्ध कर पीताभ व कौशेय कर जाता है, जरा और तपे तो लाल कर दे, कम तपे, तो सुनहरा भी, गेरुआ भी.
जो शरद है, सब श्वेत से नीलाभ कर जाता है, वह हिम का, हिमजल का, निर्मल तरल का पर्याय सा बन गया है। वह जरा जमे, तो सफेद भी, और नहीं तो रंगहीन भी.
ऐसे ही होते हैं जन भी,
कोई इतने भरित-पूरित कि बूँदों, घटाओं, निर्झरों की तरह ढरकें और सब हरिताभ कर जाएँ,
कोई इतने ललित कि बस आँखों में उतरें और आपादमस्तक रागरंजित कर जाएँ,
कुछ इतने निर्मल कि रंग छोड़ने में यकीन ही न रखें, जिसमें उतरें, उसी के रंग बन जाएँ.
वह तममय था, निशा की लौ में लीन रहने वाला.
किसी ने परिहास किया,
अब भी किसी पीताम्बरा की तलाश है?
वह बोला-
रंगों की तलाश किसे है!
प्यास के भी रंग होंगे,
और कुछ प्यासें पानी से नहीं, आग से बुझती होंगी शायद.
नहीं कहता, कोई स्मृति है,
वह शायद सरसों सी थी, जो जरा सर्द मौसम में दूर तक खुशगवार हो फैल गई,
या वह कोई अमलतास था, जो दहकती गर्मियों में कर्णिकार बन झूल गया,
वह कोई वैजयंती केली थी, जो बूँदों भरी बारिश में स्नात हो मुग्ध कर गई थी,
या वह विषमय कनेर था, जो आज भी वसंत से ग्रीष्म तक और वर्षा से शरद तक ही वासंती होता रहता है।
हरिद्रा के से रंग वाले ये फूल, ये कली सब प्रतीक हैं, किसी के.
और यह आत्मा बहुत समय से जानती है कि
दूर एक लौ जलती है, तम में कहीं,
रंग उसका भी वही है,
और उसके दीपित रहने में ही है, जिसकी प्रत्यभिज्ञा,
जो अभी नहीं निष्कंप, अहर्निश डोलती है,
इस दोलायमान चित्त में,
उसी पीताम्बरा लौ की तलाश है।
जो लख हो अलख भी बनी रहे,
दोलायमान होकर भी निष्कंप बनी रहे।