“शहादत”

आज महान क्रांतिकारियों की शहादत का दिवस है.
शहादत किसी का कमतर नहीं,
न राजगुरु का, न सुखदेव का, 
परंतु
भगत सिंह की अंतर्निहित दार्शनिकता के आगे
मैं सदा नतमस्तक रहा हूँ.

भगत किसी दूसरी दुनिया के थे.
वे अल हिल्लाज मंसूर न थे,
सरमद न थे,
ब्रूनो या लेडी गोडिवा न थे,
परंतु कुछ कमतर भी न थे.
सुकरात को मृत्युदंड मिला,
तब उन्होंने एक बार तो मुचलका भरकर मुक्त होने का प्रयास किया ही था.
जीसस को सलीब पर लाया गया,
तब उनके मुँह से निकल ही गया था-
“ईश्वर, तू ये क्या कर रहा है?”
परंतु
भगत सिंह गहरे नास्तिक थे.
उनका लेख “मैं नास्तिक क्यों हूँ”
ऐसी महान कृति है,
जिसके समक्ष आस्था की तमाम किताबें बौनी पड़ जाएँ.

सचमुच
कुछ तीलियाँ लौ से मशाल बनने के लिए ही होती हैं,
कुछ ज्योतियाँ ज्वाला बनकर ही शान्त होती हैं.
उनकी चेतना में ऐसी जागृति होती है,
जो संतों को भी मुश्किल से मिलती है.

जब भगत सिंह ने असेंबली में बम फेंका था,
तब उन्हें हस्र का पता था,
मगर
उन्होंने पोलैण्ड के क्रांतिकारियों को स्वर देते हुए कहा था-
“बहरों को सुनाने के लिए सन्नाटे की नहीं,
धमाके की जरूरत पड़ती है.”

फाँसी के समय भगत कोई ईश्वर का नाम न ले रहे थे,
मृत्यु के स्वाभाविक विषाद में नहीं डूबे थे,
किसी अप्रत्याशित के घटित होने की प्रार्थना नहीं कर रहे थे,
एक क्रांतिकारी की जीवनी पढ़ रहे थे.
तयशुदा वक्त से पहले फाँसी देने आए जेलर को हँसते हुए कहा था-
“दो लम्हे और ठहर जाओ,
एक क्रांतिकारी को दूसरे क्रांतिकारी से मिल लेने दो.”

शायद उनके ही जमाने का एक पुराना शेर है,
जो शहीदों को दिलासा दिलाता है-
“शहीदों की मजारों पर लगेंगे हर बरस मेले,
वतन पर मिटने वालों का बाकी यही निशाँ होगा.”

मगर
भगत की मजार न बन सके,
इसलिए अंग्रेजों ने वक्त से पहले फाँसी दे दी.
इस मुल्क ने फिर कभी उनकी चिता के तट पर मेला नहीं देखा,
मगर हर हिन्दुस्तानी के दिल में भगत के प्रति एक अज्ञात सा आदर है,
जो शायद राष्ट्रपिता से भी कुछ ऊपर है.

बहन ज्योति ने श्रद्धांजलि की कविता भेजी है-
“तीन जवाँ परिंदे उड़े कुछ इस तरह कि
वो सतलज रो पड़ी, ये आसमान रो पड़ा.
जिंदगी रोती रही, वो हँसते रहे मौत पर,
कुर्बानियों पर उनकी सारा जहान रो पड़ा.
सत्याग्रह का सत्य अपनी जगह है मगर
राष्ट्रपिता न रोए और हिन्दुस्तान रो पड़ा.
बस जुनून आजादी का था, इश्क वतन से,
खुदा पर न था यकीन मगर भगवान रो पड़ा.
इंसानों को तो रोना ही था बहुत रोये मगर
बड़े भाइयों के थमने पर तूफ़ान रो पड़ा.”

One comment

  • Louise Fielding says:

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