बचपन और बड़ेपन के कभी के मेल के बोल हैं,
सहारे के, सुरक्षा के-
“उँगली पकड़ो!”
बचपन और बड़ेपन के ही कभी के खेल हैं,
द्वंद्व मिटाने के, मन बहलाने के-
“उँगली चुनो!”
वे दो उँगलियाँ सदा तर्जनी व मध्यमा हैं.
वहाँ अनामिका नहीं.
अनामिका अन्य उंगलियों से कुछ अलग है,
संभवतः सबसे अनुपयोगी, सबसे शृंगारप्रिय,
या फिर सबसे विलासी या आलसी या अहंप्रिय भी.
जब अन्य उंगलियाँ मुड़ी हों, बँधी हों,
दूसरी खड़ी हो सकती हैं,
परंतु अनामिका नहीं.
वह उसका अभिमान है।
हर अंगुलिका एक अपर अधर है,
स्फुरित होकर कुछ कह जाती है।
करमुद्रा मुखमुद्रा की स्थानापन्न सी है,
वह मौन की भाषा है।
और पाँचों उंगलियाँ नहीं बराबर जैसे,
वैसे ही हैं, वे पाँच उच्चारण स्थान,
कोई कंठ्य सी मधुर, कोई मूर्धन्य सी कठोर,
कोई तालव्य सी सहमी, कोई दंत्य सी दृढ.
और जब हो राग, रागिनी, संगीत, स्वर,
मूल्यवान हो जाती हैं, पाँचों, समवेत हो,
वीणा के तार हों,
या वंशी के छिद्र,
या कि मृदंग के नाद.
पर बात तो अनामिका की थी.
तर्जनी उसकी सपत्नी सी है,
या फिर सीता सी सहमी अनामिका के लिए प्रखर गीता सी.
तर्जनी मुखर वर्जना सी है, अनामिका मौन समर्पण सी.
तर्जनी मूलत: तो प्रायः इंगित के लिए है, निर्देश के लिए,
परंतु आगे वह प्रयुक्त होती है, तर्जन के लिए, वर्जना के लिए.
यह अनामिका इन सबके लिए नहीं,
वह बस “मुद्रा” की मुद्रा के लिए है।
वह “मौनं स्वीकृति लक्षणम्” का संदेश लिए है।
इसलिए वह अभिमानिनी ही नहीं, अविरोधिनी भी है।
अनामिका अंग्रेजी में मुद्रिका की उँगली है।
परंतु मुद्रा उँगली की भी मुद्राएँ हैं.
वह अंगुष्ठ से मिल कर व नत होकर योग में पृथ्वी की मुद्रा बनाती है,
तो उर्ध्वमुख होकर नृत्य में मयूर की.
संभवतः धरा सी शांत, मयूर सी प्रदर्शनप्रिय है वह.
अनामिका नामविहीन है और यही उसका नाम है।
इस रूप में वह व्याज है, नाम न लेने का,
प्रतीक है, किसी के अनाम ही रह जाने का,
पर बिसरा न पाने का.
और यह जो अनामिका है,
सबको नहीं चुनती,
वह भाल पर बिंदी लगाने की है, तिलकोत्तमा.
सौभाग्यकांक्षिणी नहीं,
अखंड सौभाग्यवती सी है वह, स्वयं ही,
मुग्धा सी विनत, प्रौढा सी सुदृढ.
उँगलियाँ प्रेम में भी हैं, धर्म में भी,
बहुत कुछ समान सी भंगिमा लिए.
वे जो शृंगार में नहीं, भक्ति में भी नहीं,
सुनी होगी उन्होंने कदाचित् शक्तिपात दीक्षा,
ललाट पर रखी एक उँगली,
कर जाती है उद्घाटित,
अनंत रहस्य जीवन के.
मानता है, मन,
धर्म बहुत रहस्यमय है,
बहुत शक्तिमान,
पर कभी लगता है,
प्रेम कर देता है शक्तिपात,
दृष्टि भर से,
यद्यपि कि पल की पुलक देकर,
नि:शेष जीवन की झलक देकर.
शायद वह भी है अनामिका ही,
दृष्टि की.
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गत की शृंखला भर