चित्र- वासुकि अब्दुल्लाह

“वे कर, जो कमल न हुए, वे उँगलियाँ, जो पंखुरियाँ न बनीं”

कर कभी कमल होते हैं,
वाक् के अलंकार में,
तंत्र की मुद्रा में, 
नृत्य की भंगिमा में.

पंखुरी सी है हर उँगली,
पर्ण सी है हथेली,
रेशों सी रेखाओं से भरी.

कई कहानियाँ कौंधती हैं-
-कृष्ण की वह उँगली पकड़े करुण द्रौपदी की,
जो चक्र से जरा कट गई तर्जनी पर अपनी रेशमी साड़ी फाड़कर पट्टी बाँध रही है।

-सौ साल तक सोती उस स्वप्न सुंदरी की,
जिसे बुरी परी के शाप से चुभ जाती है सुई,
जगाता है, चूमकर जिसे कोई राजकुमार.

-करवा चौथ की उस चौथमाता की,
जो पुनर्जीवित कर देती है अपनी कनिष्ठा चीर कर,
अमृत देकर, अभिशप्ता वीरावती के पति को.

-यम के द्वारा उपदिष्ट हो रहे नचिकेता की,
जिन्होंने अंगुष्ठमात्र प्रमाण कहकर उसकी सूक्ष्मता का संकेत दिया था।

-बारंबार अपनी अनामिका उँगली में से खोई मुद्रा को तलाशती शकुंतला की,
जिसने दुष्यंत के दिये प्रेम प्रतीक को शचीतीर्थ में खो दिया था।

-हनुमान के लंकागमन के समय वियुक्ता प्रिया सीता के लिए राम द्वारा दी जाती मुद्रिका की,
जिसे कभी सीता ने ही नाव से उतरने पर केवट के मूल्य के रूप में निकाला था.

कथाओं के संधान के क्रम में
एक कोमल कल्पना जन्म लेती है,
अंगुलिमाल की भयावहता
और बाहुपाश की शृंगारिकता से दूर,
बहलावे की चुटकियों से विलग,
जपने की करमाला से भी अलग,
पितृपक्ष में तिलार्पण के तत्पर श्रद्धांजलि से भी पृथक्,
मेंहदी की कत्थई लालिमा से भी भिन्न,
जो न रूहानी है, न रूमानी,
जो है, बहुत सच, पूरा सांसारिक ही.

स्मृतियों में बहुत कुछ बसा है,
वह सब, जो लोकधर्मी है,
वे सारी ही उँगलियाँ,
सलाइयों से स्वेटर बुनतीं,
क्रोशिये से झालरें तैयार करतीं,
सुई धागे से कशीदा करतीं,
कुछ तुरुपतीं, कुछ बखिया करतीं,

और भी,
वे जो माले के लिए धागों में पिरोती हैं मनके,
वे जो तोड़ती हैं पत्तियाँ चाय के बागानों से,
वे जो तरकारियों को विलगाती हैं, भाजी के लिए
वे जो मटर छीलती हैं, निकालती हैं उनमें से दाने, मोती से,
वे जो बीनतीं हैं, कंकड़ चावल के अनगिनत दानों से,
वे जो भूल गई हैं, आलता, महावर, मेंहदी,
पर सदा सिल पर पिसे गए मसालों से पीली हुई सी हैं.

और भी,
वे जो, चाक पर मटके, दीये, गमले बनाने में मिट्टी से सनी हैं,
वे जो, करघों पर, तकलियों पर रखे रेशों में उलझी हैं,
वे जो, नमक के खदान में काम करती मजूरन के हाथों में घिस सी गई हैं।
वो भी, जो इलाहाबाद के से पथ पर ही आज तक पत्थर तोड़ रही हैं और इस कारण पथरीली सी हो गई हैं,
वो भी, जो तालाब से सिंघाड़े या तालमखाने निकालने में गल या सिकुड़ सी गई हैं।
वो भी, जिनमें फटी हैं, दर्द भरी बिवाइयाँ, अनगिनत.

और फिर लगता है,
भूल कर ये सारी उँगलियाँ,
कैसे उलझा दें उन्हें,
पाँच उँगलियों के अंतराल में,
बस किन्हीं दो हथेलियों की.
————-
सुमित्रा नंदन पंत की पंक्तियों का भाव लिए-
“छोड़ द्रुमों की मृदु छाया,
तोड़ प्रकृति से भी माया.
बाले तेरे बाल जाल में
कैसे उलझा दूँ लोचन?”

चित्र-
वासुकि अब्दुल्लाह

One comment

  • David Warren says:

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